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साहित्यिक दधीचि थे श्रीकृष्ण सरल

- डॉ. सन्तोष व्यास

 

'सरल-कीर्ति' ब्लॉग शृंखला के इस अंक में प्रस्तुत है

सुश्रुत हिन्दी व संस्कृत साहित्य-सेवी, संवेदनशील रचनाकार,

राष्ट्रवादी चिन्तक एवं प्राध्यापक

डॉ. सन्तोष व्यास का संस्मरणात्मक आलेख

 
 

साहित्यिक दधीचि थे श्रीकृष्ण सरल


संसार में कुछ विरले एवं विलक्षण प्रतिभा के धनी यदा-कदा ही उत्पन्न होते हैं, जिन्हें समाज भूल नहीं पाता। ऐसे ही राष्ट्रभक्ति एवं भारतीय शौर्य-वीरता को सच्चे अर्थों में जीवन में उतारनेवाले सादगी एवं सरलता की प्रतिमूर्ति थे श्री श्रीकृष्ण सरल।स्वतंत्रता संग्राम की घटनाओं के साक्षी एवं सहयोगी रहे श्री श्रीकृष्ण सरल की पहचान इतिहासकार एवं साहित्यकार के रूप में रही है। उन्होंने 15 महाकाव्यों की रचना कर एक अनूठा कीर्तिमान बनाया। क्रान्तिकारियों की कथाओं को जन-जन तक पहुँचाने की धुन में श्री सरल ने अपनी पत्नी श्रीमती नर्मदा सरल के आभूषण भी अपने ग्रन्थों की भेंट चढ़ा दिए थे।राष्ट्रभक्ति के लिए जानबूझकर निर्धनता एवं परेशानियों को न्योता दिया। वे कहते थे,

 

मैं अमर शहीदों का चारण, उनके यश गाया करता हूँ,

जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है, मैं उसे चुकाया करता हूँ।

 

सारा जीवन तंगी और संघर्षों में गुजारते हुए उन्होंने सारी सम्पत्ति अपने महान लक्ष्य को समर्पित कर दी।उनके जीवन का ध्येय था “माँग कर कोई वस्तु नहीं लेना।” बाल्यकाल में परीक्षा देते समय उनके पेन की निब टूट गयी, उन्होंने परीक्षा माचिस की तीली से लिखकर दी, पर पेन नहीं माँगा। बिलासपुर में दो दिन निराहार रहे। पैसा नहीं था, खाने का सामान कहाँ से खरीदते, क्योंकि पुस्तक नहीं बिकी। स्कूल बंद हो गया, छुट्टी पड़ गई। रोटी नसीब नहीं हुई।जब स्कूल खुले तो कविता सुनाकर, शहीदों के संस्मरण सुनाकर पुस्तकें बेचीं। बच्चों को संस्कार देना वे उचित समझते थे, इसीलिए स्कूल-स्कूल जाकर पुस्तकें बेचकर शहीदों की स्मृतियाँ अमर करते रहे।


शौर्य, वीरता के अमर गायक श्री श्रीकृष्ण सरल का निधन 2 सितम्बर 2000 को 81 वर्ष की अवस्था में उज्जैन में हो गया।अमर शहीदों के चारण की भूमिका का बखूबी निर्वाह करते हुए मृत्यु से एक सप्ताह पूर्व उन्होंने सुभाषचन्द्र बोस के जीवन पर आधारित उपन्यास “अक्षर-अक्षर इतिहास” पूर्ण किया। श्री सरल ने देश के नौजवानों में जोश, उत्साह एवं देशभक्ति का भाव फूँकने के जितने व्यक्तिगत प्रयास किए, वह कार्य कई संस्थाएँ मिलकर भी नहीं कर सकीं।

 

श्री सरल में क्रान्तिकारियों के प्रति अनुराग बचपन से ही था। जब राजगुरु को अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर ले जाया जा रहा था, तब सरल जी 12 वर्ष के थे। भीड़ ने वन्देमातरम् के नारे लगाए तो रेल में से राजगुरु ने भी नारे लगाए।यह देखकर अंग्रेज सिपाहियों ने राजगुरु को धकेल दिया इस पर बालक सरल ने अंग्रेज सिपाही के सर पर एक पत्थर दे मारा।फिर क्या था बालक को बुरी तरह पीटा गया। सब लोग उन्हें मृत समझकर छोड़कर चले गए, क्योंकि ट्रेन चल दी थी।जीवनपर्यन्त उस पिटाई के घाव उनके शरीर पर बने रहे, जिन्हें वे गर्व से अपने लिए पदक मानते थे।

 

श्री सरल ने राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन के कहने पर युवाओं को सन्देश देने के उद्देश्य से क्रान्तिकारियों के जीवन पर महाकाव्य का लेखन शुरू किया। भगत सिंह पर जब महाकाव्य लिखा तो भगत सिंह की माता विद्यावती देवी ने उन्हें चन्द्रशेखर आज़ाद पर भी महाकाव्य लिखने को कहा।इन काव्यों के सृजन में प्रामाणिकता लाने के उद्देश्य से उन्होंने पूरा जीवन यायावरी में बिताया।सुभाषचन्द्र बोस पर महाकाव्य लिखने से पूर्व उन्होंने 10 देशों की यात्रा कर दुर्लभ संस्मरण एवं छायाचित्र एकत्रित किए, जो भारतीय इतिहास के अनूठे दस्तावेज हैं। उनके बच्चों ने भी हाथ-ठेलों पर रखकर वह क्रान्तिकारी साहित्य बेचा, किन्तु गर्म खून पर लिखे काव्य ने बच्चों के गर्म कपड़े तक बिकवा दिए।

 

श्री सरल के पूर्वज स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे, उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए बलिदान दिया था। इसी वंश में 1 जनवरी, 1919 को गुना जिले (मध्यप्रदेश) के अशोकनगर में पं. भगवती प्रसाद बिरथरे एवं यमुना देवी के यहाँ इस यशस्वी बालक का जन्म हुआ था।


श्री सरल ने गुना के साहित्यिक वातावरण से दिशा प्राप्त की। काव्य सृजन प्रतिभा तो उनमें 10 वर्ष की आयु से दिखने लगी थी।विभिन्न क्रान्तिकारियों के सान्निध्य का लाभ भी उन्हें मिलता रहा।उनके जीवन में ऐसे अवसर भी आए जब मौत खुद छाता तानकर उनकी सुरक्षा करती रही। वे भालुओं के झुण्ड में घिर गए, शेर के पंजे से घायल हुए, चीन में गुण्डों ने घेर लिया। नौ बार हृदयाघात हुआ पर हर आघात के बाद वे एक महाकाव्य पूरा करते रहे। दिन में नगर-नगर जाकर भारी पुस्तकें उठाकर बेचते, फिर रात को लिखते।


श्री सरल अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्हें अपनी क्रान्तिकारी कविताओं के कारण दो बार जेल जाना पड़ा। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में श्री सरल ने खुलकर भाग लिया। उनके साथी शान से स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन और सम्मान प्राप्त कर रहे हैं, किन्तु श्री सरल ने पेंशन नहीं ली। रोचक बात यह है कि उनके द्वारा अनुशंसित व्यक्ति तो पेंशन पा गए, पर श्री सरल को शासन ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं माना। यहाँ तक कि उनकी अंत्येष्टि में शासन/प्रशासन का कोई भी प्रतिनिधि तक नहीं पहुँचा।उनके आदर्श ही उनके सिद्धांत रहे। उनका कहना था कि मेरे आराध्य क्रान्तिकारी जब जंगलों में भूखे-प्यासे भटके तो मैं क्यों अभावों में नहीं जी सकता? उन्होंने क्रान्तिकारी जीवन का व्रत ले लिया, 40 वर्ष तक घी-दूध नहीं खाया।डबलरोटी पानी में डुबो कर खा लेते थे। मजदूरों के होटलों में सस्ते में भोजन करते। बोरे पर लिखकर गले में टांग लेते मैं शहीदों का चारण-उनकी कहानियों से इस पीढ़ी में उस पीढ़ी के भाव जगाना चाहता हूँ।


श्री सरल द्वारा रचित क्रान्तिकारी साहित्य की अनूठी बेजोड़ कृतियाँ एक देशभक्त की राष्ट्र अर्चना कही जा सकती हैं। “जीवित शहीद” की उपाधि से सम्मानित श्री सरल को सच्ची श्रद्धाञ्जलि यही होगी कि ऐसे प्रयास किए जाएँ ताकि उनका कार्य जन-जन तक पहुँचे।


 

डॉ. सन्तोष व्यास

सुश्रुत हिन्दी व संस्कृत सहित्य-सेवी, रचनाकार

राष्ट्रवादी चिन्तक एवं प्राध्यापक, कुशल मंच संचालक और संयोजक

राष्ट्रीय, सामाजिक तथा सांस्कृतिक चेतना की जागृति की दिशा में अनवरत रूप से प्रयत्नशील

राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में अनेक लेखों का प्रकाशन

कविवर सरलजी के विशेष स्नेहभाजन रहने का सौभाग्य आपको प्राप्त है

उनसे प्रेरणा लेकर सत्साहित्य के सृजन के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय

लेखक ई–परिचयwww.shririshnasaral.com/profile/svs

ई-मेल : blog@shrikrishnasaral.com

 

विशेष सूचना –

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