– डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र
'सरल-कीर्ति' ब्लॉग शृंखला के इस अंक में प्रस्तुत है
मूर्धन्य साहित्यकार, लेखक, कवि, समीक्षक एवं प्राध्यापक
डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र का समीक्षात्मक आलेख
‘पुरवैया’ के ‘राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल विशेषांक’
सितम्बर–2009, पृष्ठ 23-25 से -साभार-
शीर्षक : सरलजी के गीतों का काव्य सौन्दर्य | लेखक : डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र | सम्पादक : श्री विनय त्रिपाठी
सरलजी के गीतों का काव्य सौन्दर्य
सरलजी की ख्याति महाकाव्यकार और कथाकार के रूप में अधिक है। गीतकार के रूप में उन्हें अधिक महत्व नहीं मिल सका। कदाचित इसका प्रमुख कारण उनके गीतों पर समीक्षात्मक दृष्टि का अभाव है। नयी कविता के आन्दोलनों और विश्वविद्यालयों की शिविरिबद्ध आलोचना की गुटबाजियों से दूर रहने के कारण सरलजी के साहित्य पर समीक्षा सामग्री का यूँ भी अभाव रहा। फिर उनके महाकाव्यकार का कृतित्व इतना विराट था कि उनके समीक्षक उसी के अवगाहन में व्यस्त रहे। सरलजी के गीतकार व्यक्तित्व की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया। इन कारणों से सरलजी के गीत समीक्षा का विषय नहीं बन सके। तथापि सरलजी का गीतकार उनके प्रबन्धकाव्यकार से भी कहीं अधिक सशक्त और प्रभावपूर्ण है।
महाकवि श्रीकृष्ण सरल के गीत उनके काव्य संकलनों में और प्रबन्ध रचनाओं में प्रकाशित हुए हैं। उनके गीतों में राष्ट्र–प्रेम का स्वर सबसे ऊँचा है। वे उस पीढ़ी के कवि थे जिसने न केवल संघर्ष करके देश को स्वतंत्र कराया अपितु उसे सजाने–सँवारने के लिए भी दृष्टि दी। अपने प्रेरक गीतों से युवाओं को कर्मपथ पर नियोजित करने का प्रयत्न किया तथा युगीन–समस्याओं के समाधान के लिए वैचारिक दृष्टि दी। इसलिए उनके गीतों का भाव–पक्ष वैविध्यपूर्ण है।
कर्म की प्रेरणा और प्रोत्साहन सरलजी के गीतों की आधारभूत विशेषता है। युवावस्था कर्मपथ की यात्रा का सर्वोत्तम अवसर होती है। अतः सरलजी यौवन को उमंग एवं उत्साहपूर्वक आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं –
यौवन है तो यौवन के घन से गरजो!
यौवन है तो उनचास पवन से गरजो!
यौवन का तो उन्माद अलग होता है,
यौवन का तो आह्नाद अलग होता है,
यौवन की साँसें बहुत अलग होती हैं –
यौवन का तो फौलाद अलग होता है।
दिखलादो, तुम भी बहुत अलग हो सब से
तुम सागर के गर्जन–तर्जन से गरजो!
यौवन है तो यौवन के घन से गरजो!
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले भारत के युवाओं में जो उत्साह था, जैसी राष्ट्रभक्ति और उत्कट श्रमशीलता थी उसके दर्शन स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त प्रायः नहीं हुए। इसलिए सरलजी ने युवाओं से युवता प्रमाणित करने का आग्रह किया है –
यौवन का हर क्षण कसा हुआ रहता है
गति दो यौवन को, ताल और लय दो तुम।
यौवन पाया है, उसका परिचय दो तुम।
हो विवश, नहीं आता यौवन को झुकना,
यौवन को आता नहीं बीच में रुकना,
यौवन में इतनी शक्ति अपरिमित होती
आता यौवन को नहीं यत्न से चुकना।
विश्वास, तुम्हारे यौवन का संबल हो
विश्वास–भावना जग को अक्षय दो तुम।
यौवन पाया है, उसका परिचय दो तुम॥
भारत के यौवन को विलासिता और अकर्मण्यता की ओर झुकते देखकर सरलजी का अन्तर्मन मौन-क्रन्दन कर उठता है। मन की पीर बढ़ने पर गीत में उनका उपालम्भ इस प्रकार मुखर होता है –
उद्यत यौवन, ये ठण्डी–ठण्डी आहें।
कर्त्तव्य विपुल, ये सिमटी–सिकुड़ी बाहें।
स्वतंत्र भारत ने फिल्म के पर्दे से जो ठण्डी आहें भरने का सबक लिया वह युवा पीढ़ी को निरन्तर संघर्ष से दूर ले गया। फिल्मी दुनिया ने सिने अभिनेताओं को युवा पीढ़ी का ऐसा आदर्श बनाया कि गाँधी, सुभाष और विवेकानन्द की आदर्श छवियाँ अनुकरण की दृष्टि से ओझल हो गयीं। बालक, समाज के सच्चे आदर्श नायकों को जानने–समझने की जगह सिनेमा तथा क्रिकेट जैसे महँगे और विलासी तथाकथित नायकों की राह पर चल निकले। इसी का दुष्परिणाम है कि भारतीय–समाज चारों ओर से संकटापन्न होकर भी थोथे विकास के नारे उछालता हुआ विदेशी ऋण की चक्की में पिस रहा है। कहने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती कि देश की इस दुर्दशा के लिए युवा शक्ति की उक्त अकर्मण्यता ही अधिक उत्तरदायी है।
कर्म विचार का मूर्त रूप है। मनुष्य जीवन में अच्छा–बुरा जो कुछ भी करता है, वह प्रथमतः उसके मन में विचार रूप में प्रकट होता और तब व्यवहार में कर्म बनकर प्रत्यक्ष होता है। अतः कर्म की महानता सदा सुविचार पर निर्भर करती है। सरलजी ने भी वैचारिक शुद्धता पर बल दिया है –
सुविचारों से मन उज्ज्वल होता रहता,
सुविचार, कलुष–कालिख को धोता रहता,
सुविचार, जन्म देता है सुविचारों को
यह पुण्य–बीज अन्तर में बोता रहता
कर यत्न जगाओ अपने सुविचारों को
केवल अच्छी बातें ही सदा विचारो।
शृंगार करो मन का तुम इसे सँवारो॥
देश–हित में विचार करने और कार्य करने के लिए देश के प्रति रागात्मक भावों की पुष्टि अपेक्षित है। अतः सरलजी ने अपने गीतों में देश के प्रति अनुराग उत्पन्न करने का भी भरसक प्रयत्न किया है। इस सन्दर्भ में “यह प्राण प्यारा देश है” शीर्षक से रचित गीत की निम्नांकित पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं –
जीवन यहाँ हमको मिला,
जीवन सुमन जैसा खिला,
शोभा धरा की है यही,
नभ का सितारा देश है।
यह प्राण प्यारा देश है।
सुन्दर हमारा देश है।
इस देश के गौरव और सम्मान की रक्षा के लिए सरलजी का गीतकार विशेष रूप से सचेत है। देश–हित में वह किसी भी प्रकार की देश–विरोधी गतिविधि का प्रबल विरोध करता है। देश के ऊपर गिद्ध–दृष्टि जमाये बैठी बाह्य शक्तियों और देशद्रोहियों के विरुद्ध कड़ा रुख रखने का स्पष्ट निर्देश सरलजी के गीतों में मिलता है। एक उदाहरण इस प्रकार प्रस्तुत है –
जो धरती की हरियाली पर ललचाए,
जो अपने सपनों पर ही घात लगाए,
जिसके दिल में हो गया खोट पैदा हो
निर्माण साधना को जो नजर लगाए–
वह दुश्मन हो या घर का भेदी, उसको
तुम अपनी आँखें लाल–लाल दिखलाओ।
यौवन के हाथों का कमाल दिखलाओ।
देश की समृद्धि के लिए देशवासियों की एकता को सरलजी ने अत्यावश्यक माना है। निम्नांकित गीत पंक्तियों में इस तथ्य की पुष्टि होती है –
एकता बड़ी शक्ति होती
मिलो आपस में एक रहो,
बुराई बहुत बुरी होती
हमेशा ही तुम नेक रहो,
घृणा को जीतो, गले मिलो
बढ़ो आगे, मत शरमाओ।
सभी अपने हैं, अपनाओ॥
हमारे देश में साम्प्रदायिक–विद्वेष विगत एक शताब्दी से चरम सीमा पर है। इसी विद्वेष के कारण देश का विभाजन हुआ। फिर भी यह विद्वेष–विष शमित नहीं हो सका है। सरलजी ने इसके शमन के लिए इस प्रकार प्रेरणा दी है –
गाँठ अपने मन की खोलो।
जहर को फेंको, रस घोलो।
न मन्दिर मस्जिद लड़ते हैं।
न लड़ते गिरजे–गुरुद्वारे,
आदमी ही लड़ता–भिड़ता
वही मरता है, वह मारे।
एक होकर क्यों लड़ते हो,
एकता की तुम जय बोलो।
गाँठ अपने मन की खोलो।
सरलजी ने एकता की पुष्टि के लिए प्रीति को महत्वपूर्ण माना है। इसलिए वे प्रेम–पथ का पथिक बनने की प्रेरणा देते हैं –
प्रेम से आत्मशुद्धि होती,
प्रेम से शुद्ध बुद्धि होती,
प्रेम से उर ज्योतित कर लो,
प्रेम पर तन–मन वारो तुम।
प्रेम का पंथ बुहारो तुम।
भारतीय–समाज में व्याप्त बुराइयों के निराकरण के भी सरलजी ने प्रभावपूर्ण गीत लिखे हैं। धर्म से सम्बंधित अनेक भ्रान्तियों का निवारण करते हुए सरलजी उसे ‘आचरण का जीवन’ कहते हैं। वे उसे बन्धन नहीं मानते बल्कि प्रगति का पथ बताते हैं। उन्होंने धर्म की व्याख्या इस प्रकार प्रस्तुत की है –
धर्म, आचरण का जीवन है।
धर्म, कर्म का शुभ चिन्तन है।
धर्म वही, जिस पर चलकर हम
और अधिक उन्नति कर पायें,
धर्म वही, जिस पर चलकर हम
आत्म शक्ति का संबल पायें।
धर्म कभी मतवाद नहीं है,
धर्म नहीं कोई बन्धन है।
धर्म आचरण का जीवन है।
मार्क्स ने धर्म को अफीम कहकर उसे त्याज्य बताया है। धर्म के नाम पर फैलते विद्वेष, पाखण्ड एवं आडम्बरपूर्ण सन्दर्भों में यह उचित भी है किन्तु यदि धर्म को सहज ढंग से आचरण की पवित्रता के सन्दर्भ में ग्रहण करें; उसे प्रेम और सद्भाव का आधार बनाएँ तथा उसका आश्रय लेकर नैतिक मानवीय मूल्यों को पुष्ट करें तो धर्म संजीवनी है। सरलजी ने उसके इसी प्राणरक्षक रूप को महत्व दिया है। धर्म के आडम्बरों का उन्होंने युक्तियुक्त विरोध किया है –
इसको छुओ, छुओ मत उसको
इन बातों में धर्म नहीं है,
भगवन्–अर्पित होने वाली
सौगातों में धर्म नहीं है।
धर्म आस्था है, दृढ़ता है,
यह गुरुता का अभिनन्दन है।
धर्म आचरण का जीवन है।
पाश्चात्य संस्कृति व्यक्तिवादी सिद्धान्त में विश्वास करती है जबकि भारतीय संस्कृति परहित में व्यक्तिगत सुखोपभोग का सन्देश देती है। इस मूलभूत अंतर के कारण भारतीय एवं पाश्चात्य जीवन में जीवन का अर्थ ही भिन्न है। जहाँ सरलजी के समकालीन कवियों ने पाश्चात्य प्रभाव के कारण अपने गीतों में वैयक्तिकता को महत्व दिया है, वहाँ सरलजी ने परोपकारनिष्ठ जीवन को ही जीवन बताया है। उनके अनुसार –
लोग खाते-पीते -सोते
नहीं यह जीवन कहलाता,
और जीवन को ढोना भी
नहीं जीवन का पद पाता।
दूसरों का हित करना है,
देह में जब तक जान रहे।
देश-धरती का मान रहे।
सरलजी ने प्रयाण गीतों की भी प्रभावपूर्ण सृष्टि की है। उन्होंने जैसे प्रयाण गीत रचे हैं वैसे गीत अन्यत्र दुर्लभ हैं। एक उद्धरण इस प्रकार प्रस्तुत है –
भोर हुआ, शोर हुआ, राह चल पड़ी,
सूरज ने जीवन की पिरो दी लड़ी।
कर्म करो, तुम भी कुछ नया गढ़ो रे!
आगे बढ़ो रे! आगे बढ़ो रे!
जागो! उठो! आगे बढ़ो! आगे बढ़ो रे!
इस प्रकार सरलजी के गीतों में भावगत–वैविध्य विद्यमान है। शिल्पगत सौन्दर्य की दृष्टि से भी अनेक गीत बेजोड़ हैं। भाषा की सरलता और व्याकरणिक शुद्धता उनके गीतों को विशेष रूप से स्पृहणीय बनाती है। विषयानुकूल भावाभिव्यंजना एवं भावानुकूल शब्द–विधान उनके गीतों की अन्य विशेषताएँ हैं। उनके गीत अमिधा प्रधान होकर भी नीरस नहीं हैं और युग जीवन के अनुरूप सन्देश देने के कारण सुभाषितों–सूक्तियों की श्रेणी में अग्रणी हैं। वे प्रसाद गुण से ओतप्रोत हैं। वीर रस के गीतों में ओज गुण के भी दर्शन होते हैं, किन्तु आधिक्य प्रसाद गुण का ही है। इन गीतों में अलंकारों और बिम्बों का सहज समावेश हुआ है। प्रतीकों का प्रयोग विरल है। समग्रतः उनके गीत सरस, सुबोध और प्रेरणाप्रद हैं। अतएव साहित्य की अनुपम निधि और स्पृहणीय हैं।
डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र
प्राध्यापक, साहित्यकार, लेखक, कवि एवं समीक्षक
मैथिलीशरण गुप्त सम्मान 2001 उत्तरप्रदेश
श्रीकृष्ण सरल पुरस्कार 2003 मध्यप्रदेश साहित्य परिषद
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी पुरस्कार 2015 मध्यप्रदेश साहित्य परिषद
60 से अधिक प्रकाशित कोश–ग्रन्थ, शोध–समीक्षा ग्रन्थ, काव्य–संग्रह
प्रबन्ध–काव्य, संपादित–ग्रन्थ व शोध–निर्देशन ग्रन्थ
अनेक दूरदर्शन व आकाशवाणी कार्यक्रम प्रसारित
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