- डॉ. स्वाति कपूर चढ्ढा
विश्व हिंदी पत्रिका - 2021, विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरिशस से साभार
लेखिका : डॉ. स्वाति कपूर चढ्ढा, पुणे, भारत
शीर्षक : हिंदी साहित्य के दधीचि और अमर शहीदों के चारण - श्रीकृष्ण सरल
विश्व में सबसे अधिक महाकाव्य लिखनेवाले हिंदी साहित्यकार, जिनकी लेखनी का एक-एक शब्द पढ़नेवाले के मन में देशभक्ति की ज्योति प्रज्वलित करने में सक्षम है, राष्ट्रभक्ति के दुर्लभ-दृष्टांत लिखने के कारण ‘जीवित शहीद’ की उपाधि से सम्मानित, स्वतंत्रता संग्राम की महत्त्वपूर्ण, किंतु अचर्चित इकाई, अत्यंत सादे-सरल व्यक्तित्व के स्वामी का नाम है - प्राध्यापक श्रीकृष्ण सरल।
श्रीकृष्ण सरल ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने क्रांतिकारी साहित्य, बाल-साहित्य, अध्यात्म और राष्ट्रभक्ति साहित्य क्षेत्र की महाकाव्य, उपन्यास, नाटक, निबंध, गज़लें, कविताएँ, संस्मरण आदि अनेक विधाओं की रचना की। जीवनपर्यंत कठोर साहित्य-साधना में लीन रहकर उन्होंने अत्यंत प्रेरणादायक साहित्य का सृजन किया है, किंतु यह आश्चर्य की स्थिति है कि इतने महान् ग्रंथों तथा उत्कृष्ट रचनाओं का सृजन करने के उपरांत भी, उन्हें वह प्रसिद्धि तथा पहचान नहीं मिली, जिसके वे अधिकारी थे। वे एक युगद्रष्टा साहित्यकार थे। 20वीं और 21वीं, इन दो शताब्दियों के बीच अब तक ऐसी सृजनात्मक शक्ति और एक साथ इतने क्रांतिकारी ग्रंथों के सृजन का विश्व कीर्तिमान स्थापित करनेवाले साहित्यकार उनके अतिरिक्त शायद ही कोई हो। इस धरती पर माँ शारदा की मूक साधना करनेवाले सहज साधकों और महान् सर्जकों की यदि सूची बनाई जाए, तो अपने खून की लाली में कलम डुबोकर भारत के स्वाधीनता संग्राम की कहानी और महान् देशभक्तों व शहीदों के त्याग का इतिहास अपने ग्रंथों और महाकाव्यों के पृष्ठों पर रचनेवाले साहित्यकारों में से शायद सरलजी एक ऐसे इकलौते साहित्यकार हैं, जिनकी साहित्य-साधना के मूल्यांकन की ओर सुधी आलोचकों का ध्यान नहीं गया। उनके लेखन और संघर्षशील साधना का मूल्यांकन करते हुए महान् क्रांतिकारी पं. परमानंद जी ने कहा था –
“श्रीकृष्ण सरल जीवित शहीद हैं, उनकी साहित्य-साधना तपस्या कोटि की है, क्रांतिकारी लेखन के लिए उनके जीवन का हर पल तिल-तिल कर उन्हें शहादत की ओर ले जा रहा है।”
सरलजी के सुदूर पूर्वज ज़मींदार थे। अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ते हुए वे विद्रोही के रूप में मारे गए और फाँसी पर लटका दिए गए। ग्राम वासियों की मदद से एक गर्भवती महिला बचा ली गई थी, उसी महिला के गर्भ से उत्पन्न बालक से पुनः उस परिवार की वंश वृद्धि हुई। उसी वंश में 1 जनवरी, 1919 को एक निम्न मध्यमवर्गीय किंतु अत्यंत प्रतिष्ठित सनाढ्य-ब्राह्मण परिवार में अशोक नगर, गुना (मध्यप्रदेश) में सरलजी का जन्म हुआ। उनके पिता का नाम पंडित भगवती प्रसाद बिरथरे एवं माता का नाम श्रीमती यमुना देवी था। जब सरलजी केवल 5 वर्ष के थे, तब उनकी माताजी का स्वर्गवास तीर्थाटन के क्रम में पावन नगरी अयोध्या में हो चुका था। सरलजी को बचपन से ही धार्मिक परिवेश प्राप्त हुआ। अशोकनगर के पास ही ग्राम धौरा में पारिवारिक कृषि भूमि थी, जो कि वर्तमान में भी उनके वंशजों के पास है।
श्री सरलजी में देशप्रेम और क्रांतिकारियों के प्रति अनुराग बचपन से ही था। सरलजी ने ‘सरल-रामायण’ महाकाव्य में अपने आत्म-कथ्य में बताया है कि - ‘‘जब मैं दस-ग्यारह वर्ष की उम्र का था और अशोकनगर माध्यमिक विद्यालय का छात्र था, उस समय राजगुरू जी को अंग्रेज़ों द्वारा गिरफ़्तार करके ट्रेन से लाहौर ले जाया जा रहा था, भीड़ में मैं भी खड़ा था। जब लोगों ने ‘वंदेमातरम्’ के नारे लगाए, तो राजगुरू जी ने भी ‘वंदेमातरम्’ के नारे लगाए। यह देखकर अंग्रेज़ सिपाहियों ने राजगुरू जी को धकेल दिया। यह देखकर मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने उस अंग्रेज़ सिपाही के सर पर एक पत्थर निशाना साधकर दे मारा। निशाने पर मेरा हाथ अच्छी तरह सधा हुआ था। मेरे द्वारा संधान करके फेंका गया पत्थर उस अंग्रेज़ सिपाही के माथे पर कस कर लगा।” फिर क्या था, बालक सरल को अंग्रेज़ों द्वारा बुरी तरह से पीटा गया। बालक सरल अधमरा होकर वही गिर पड़ा, तब अंग्रेज़ उन्हें मरा हुआ समझकर छोड़कर चले गए, क्योंकि उस वक्त ट्रेन भी चल पड़ी थी। जीवनपर्यंत उस पिटाई के घाव उनके शरीर के साथ मन-मस्तिष्क पर भी बने रहे, जिसे वे गर्व से अपने लिए पदक मानते थे।
श्री सरलजी ने गुना के साहित्यिक वातावरण से दिशा प्राप्त की। काव्य-सृजन प्रतिभा तो उनमें 10 वर्ष की आयु से ही दिखने लगी थी। अशोकनगर में अध्ययन के उपरांत सरलजी ने गुना में अध्ययन एवं अध्यापन किया तथा गुना से ही उनकी विभिन्न साहित्य सम्मेलनों की यात्रा आरंभ हुई, जो निर्बाध गति से संपूर्ण राष्ट्र में अविराम चलती रही। उनके प्रखर साहित्य को पढ़ने से यह विश्वास हो जाता है कि गुना की लाल माटी का लावा उनके क्रांतिकारी साहित्य के माध्यम से युवाओं की रगों में रक्त की हिलोरें हमेशा ही मारता रहेगा। सरलजी की लेखन यात्रा राष्ट्रीय रचनाओं से आरंभ हुई। कुछ समय तक उन्होंने हास्य-रस से ओत-प्रोत कविताएँ लिखीं। 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय तक वे क्रांतिकारी साहित्य लिखना आरंभ कर चुके थे। विभिन्न क्रांतिकारियों के सान्निध्य का लाभ भी उन्हें मिलता रहा। जीवनपर्यन्त कठोर साहित्य साधना में रत सरल जी 13 वर्ष की अवस्था से ही क्रांतिकारियों से परिचित होने के कारण शासन से दंडित हुए। भारत-रत्न महर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन से प्रेरित, शहीद भगतसिंह की माता श्रीमती विद्यावती जी के सान्निध्य एवं विलक्षण क्रांतिकारियों के समीप आने पर श्री सरलजी ने प्राणदानी पीढ़ियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपने साहित्य का विषय बनाया। श्री सरलजी ने राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के कहने पर युवाओं को संदेश देने के उद्देश्य से क्रांतिकारियों के जीवन पर महाकाव्य का लेखन शुरू किया। भगतसिंह पर जब उन्होंने महाकाव्य लिखा, तब भगतसिंह की माताजी श्रीमती विद्यावती देवी ने उन्हें शहीद चंद्रशेखर पर भी महाकाव्य लिखने को कहा। इस प्रकार क्रांतिकारी साहित्य के सृजन में प्रामाणिकता लाने के उद्देश्य से उन्होंने अपना पूरा जीवन यायावरी में बिताया। सरलजी की सुप्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं –
“मैं शहीदों का चारण, उनके यश गाया करता हूँ
जो कर्ज राष्ट्र का खाया है, मैं उसे चुकाया करता हूँ।”
सरलजी ने लेखन में कई विश्व-कीर्तिमान स्थापित किए। उन्होंने 125 ग्रंथों का प्रणयन किया, इसके साथ ही सर्वाधिक क्रांति-लेखन और सर्वाधिक 15 महाकाव्यों की रचना का श्रेय भी श्रीकृष्ण सरल को ही प्राप्त है। सरलजी की पद्य रचनाएँ तो फिर भी हिंदी साहित्यकारों के बीच कहीं-न-कहीं परिचित हैं और उनका बहुत न सही, कुछ मूल्यांकन ज़रूर हुआ है, किंतु उनकी गद्य रचनाएँ हिंदी समीक्षा के क्षेत्र में नितांत अपरिचित और गुमनाम-सी हैं। आश्चर्य का विषय यह है कि श्रीकृष्ण सरल द्वारा रचित अधिकांश साहित्य महान् क्रांतिकारियों को समर्पित है तथा उनकी ये बेजोड़ कृतियाँ एक देशभक्त की सच्ची राष्ट्र-अर्चना कही जा सकती हैं, फिर वे हिंदी साहित्य के समीक्षकों से अछूती कैसे रह गईं ? श्रीकृष्ण सरल का रचना संसार अति व्यापक है। उन्होंने भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाषचंद्र, जय सुभाष, शहीद अशफ़ाकउल्ला खाँ, विवेक-श्री, स्वराज्य तिलक, अंबेडकर दर्शन, क्रांति-ज्वाल कामा, बागी करतार, क्रांति-गंगा, कवि और सैनिक, महारानी अहिल्याबाई, अद्भुत कवि सम्मेलन, जीवंत-आहुति, सरल-सीतायन, तुलसी-मानस, महाबली, सरल-रामायण जैसे अनमोल महाकाव्यों तथा खंडकाव्यों का सृजन किया है। इसी तरह गद्य में संस्कृति के आलोक स्तंभ, हिंदी ज्ञान प्रभाकर, संसार की महान् आत्माएँ (निबंध संकलन), संसार की प्राचीन सभ्यताएँ (निबंध संकलन), विचार और विचारक, देश के दीवाने, क्रांतिकारी शहीदों की संस्मृतियाँ ( संस्मरण ), शिक्षाविद् सुभाष, कुलपति सुभाष, सुभाष की राजनैतिक भविष्यवाणियाँ, नेताजी के सपनों का भारत, नेताजी सुभाष-दर्शन, राष्ट्रपति सुभाषचंद्र बोस, नेताजी सुभाष जर्मनी में, सेनाध्यक्ष सुभाष और आजाद हिंद संगठन, देश के प्रहरी, बलिदान गाथाएँ - ( कहानी-संग्रह ), क्रांति-कथाएँ - भाग 1 एवं भाग 2 ( कहानी-संग्रह ), देश के दुलारे, क्रांतिकारी कोश - भाग 1 से लेकर भाग 5 ( कहानी-संग्रह ), मेरी सृजन-यात्रा इत्यादि उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।
स्वतंत्रता संग्राम के अनन्य पुजारी श्रीकृष्ण सरल ने चंद्रशेखर आज़ाद के बारे में अत्यंत परिश्रमपूर्वक शोध करके इतिहास के तथ्यों का संकलन करके ‘चंद्रशेखर आज़ाद’ नामक उपन्यास की रचना की, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और आज़ाद हिंद आंदोलन पर आधारित कृति ‘जय-हिंद’ का लेखन किया है। श्रीकृष्ण सरल कहते हैं कि “नेताजी पर लगभग दस हज़ार पृष्ठ तथा पंद्रह कृतियाँ लिख चुकने के पश्चात् भी मैं महसूस करता रहा था कि अभी मुझे वह चीज़ लिखनी है, जो नेताजी के समस्त प्रभाव को थोड़े में समेट सके और उनका सही चित्र लोगों के सामने रख सके। ‘जय-हिंद’ उसी दिशा में किया गया एक प्रयास है। ” उन्होंने सन् 1757 से लेकर गोवा की आज़ादी सन् 1961 तक के स्वाधीनता संग्राम की महागाथा को 5 खंडों में प्रकाशित ‘क्रांतिकारी कोश’ में कलमबद्ध किया है। उनके ‘चटगाँव का सूर्य’ नामक उपन्यास में सूर्यसेन उर्फ़ मास्टरदा जैसे वीर क्रांतिकारी के नेतृत्व में अनेक किशोर क्रांतिकारियों की वीरता प्रदर्शित की गई है, तो ‘बाघा जतिन’ नामक उपन्यास में सरलजी ने बाघा जतिन ( ज्योतीन्द्रनाथ मुखर्जी ) के जीवन पर प्रकाश डाला है। इसी प्रकार ‘दूसरा हिमालय’ नामक उपन्यास में उन्होंने लोकमान्य तिलक के जीवनसंघर्ष और उनके द्वारा किए गए महत्त्वपूर्ण कार्यों को प्रकाशित किया है तथा ‘राजगुरु’ नामक उपन्यास में राजगुरु और उपन्यास ‘रामप्रसाद बिस्मिल’ में देशभक्ति और बलिदानों का परिचय पाठक वर्ग से करवाया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि देशभक्ति एवं क्रांतिकारी लेखन उनका वैशिष्ट्य रहा है, जो उनकी समस्त रचनाओं में प्रतिबिंबित होता है।
देश की स्वतंत्रता के लिए हुई क्रांति का पूरा इतिहास लिखनेवाले सरलजी अकेले साहित्यकार हैं। उनकी लिखी रचनाएँ पढ़कर कोई सहज ही समझ सकता है कि विश्व की महान् विभूतियों में गणना करने योग्य महान् साहित्यकार श्रीकृष्ण सरल को अपने ही देश में अपेक्षित सम्मान, पहचान और सुयश नहीं मिला। बहुत कम लोग यह जानते हैं कि आधुनिक भारत में क्रांतिकारियों का विश्वकोश कहा जानेवाला बेजोड़ महाकाव्य ‘क्रांति-गंगा’ लिखनेवाले सरलजी के व्यक्तित्व में महर्षि वेदव्यास और गोस्वामी तुलसीदास, दोनों के व्यक्तित्व का प्रतिबिंब हमें एक साथ दिखाई देता है। इस दृष्टि से उनका तुलसी के जीवन और रामकथा पर केंद्रित महाकाव्य ‘तुलसी-मानस’ आधुनिक युग की रामायण कहलाता है। इसी प्रकार उन्होंने अकेले सुभाषचंद्र बोस पर ही 18 ग्रंथ प्रकाशित किए हैं। वे रचनाकर्म को सामाजिक दायित्व और संशक्ति से जोड़कर देखते हैं। इसलिए वैयक्तिक अनुभूति अथवा चेतना को रचना के धरातल पर सार्वभौमिक बनाकर ही देखना चाहते हैं। कोई भी विचारधारा यदि वह व्यापक कल्याण के अनुकूल नहीं है, तो उनकी दृष्टि में वह रचनाकर्म में बाधक ही होगी। इसलिए वे मानते हैं कि लेखक की प्रतिबद्धता विचारधारा से नहीं, अपितु आंतरिक ईमानदारी और मानवीय मूल्यों के साथ होनी चाहिए।
श्रीकृष्ण सरल ने ‘मेरी सृजन-यात्रा’ में लिखा है कि “मैंने अपने जीवन का यही उद्देश्य बनाया है कि मैं केवल उन लोगों पर लिखूँ, जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया और वे ही सर्वाधिक उपेक्षित रहे। मेरे जीवन का हर क्षण उन्हीं के चिंतन में बीता है, इसलिए अपने विषय में सोचने और लिखने का मुझे अवसर ही नहीं मिला। ” इसके अलावा उन्होंने ‘मेरी सृजन-यात्रा’ में अपनी रचना-प्रक्रिया के उद्देश्य के बारे में कहा है कि ‘‘मैंने जो कुछ भी लिखा है, वह स्वांत: सुखाय नहीं लिखा है। मैंने सोद्देश्य लिखा है। मेरे लेखन का उद्देश्य ही यह रहा है कि समाज में परिवर्तन हो और समाज अच्छा बने।’’ श्रीकृष्ण सरल की रचना-प्रक्रिया का उद्देश्य था – देश की आज़ादी के लिए अपना तन-मन अर्पित करनेवाले अमर शहीदों और क्रांतिकारियों के बलिदानों और त्याग को आम जनता के सामने लाकर उनके प्रति आदर प्रकट करना, जनता में देशप्रेम और देशभक्ति का भाव जागृत करना, युवा पीढ़ी में उत्साह भरना और उन्हें देशभक्ति, ईमानदारी, त्याग व समर्पण के सच्चे संस्कार देना। उन्होंने अपने अमूल्य साहित्य द्वारा भारतीय जनमानस का देश के स्वर्णिम अतीत से साक्षात्कार कराया है। उनका साहित्य देशभक्ति की ऊर्जा का अक्षय-स्रोत है।
श्रीकृष्ण सरल ऐसे अनोखे व्यक्तित्व का नाम है, जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी कलम को तलवार बनाकर जूझते रहे, जिन्होंने अमर क्रांतिकारियों की गाथाएँ जन-जन तक पहुँचाने के उद्देश्य से साहित्य - सृजन किया, जिन्होंने अपनी पुस्तकें स्वयं के खर्चे पर प्रकाशित करने के लिए अपनी ज़मीन-जायदाद तक बेच दी, जिन्होंने अपनी पुस्तकें पूरे देश में घूम-घूमकर लोगों तक पहुँचाई और व्यक्तिगत प्रयासों से अपनी पुस्तकों की 5 लाख प्रतियाँ बेच दीं, किंतु अपने लिए कुछ नहीं रखा। पुस्तकों को बेचकर सरलजी को जो धनराशि मिली, उसे वे चुपचाप शहीदों के परिवारों के लिए समर्पित करते रहे। प्रख्यात साहित्यकार होने के बाद भी उनकी यही आकांक्षा रही कि उन्हें महाकवि या महान् साहित्यकार के नाम से नहीं, बल्कि शहीदों के चारण के नाम से जाना जाए। क्रांति-कथाओं का शोधपूर्ण लेखन करने के संदर्भ में स्वयं के खर्च पर उन्होंने 12 देशों की यात्राएँ की। उन्होंने ये यात्राएँ विशेषकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस पर अनेक महत्त्वपूर्ण गद्य रचनाएँ लिखने के संदर्भ में गुमनाम तथ्यों को खोजने के लिए कीं। पुस्तकों के लिखने और उन्हें प्रकाशित कराने में सरलजी की अचल संपत्ति से लेकर उनकी पत्नी के आभूषण भी बिक गए। बहुत बार सरलजी को हृदयाघात हुआ, किंतु उनकी कलम नहीं रुकी। अमर शहीदों के चारण की भूमिका का अच्छी तरह निर्वाह करते हुए सरलजी ने अपनी मृत्यु से एक सप्ताह पूर्व सुभाषचंद्र बोस के जीवन पर आधारित उपन्यास ‘इतिहास-पुरुष सुभाष’ पूर्ण किया। जीवित शहीद की उपाधि को सार्थक करनेवाले अमर साहित्यकार श्री सरल को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि ऐसे प्रयास किए जाएँ, ताकि उनका यह महान् कार्य तथा उनके ओजस्वी विचार जन-जन तक पहुँचें।
अमर साहित्यकार श्री सरलजी का समस्त लेखन अब हिंदी साहित्य के इतिहास की अमूल्य धरोहर है। उनकी रचनाएँ कालजयी एवं अमर हैं। सरलजी का साहित्यिक प्रदेय उत्कृष्ट साहित्य की अजर-अमर मिसाल है। वर्तमान परिदृश्य में श्रीकृष्ण सरल द्वारा रचित देशप्रेम की भावनाओं से ओत-प्रोत तथा अमर क्रांतिकारियों के जीवन की संघर्ष गाथा को व्यक्त करनेवाले साहित्य का अत्यंत महत्त्व है। आज देश में भ्रष्टाचारियों एवं देशद्रोहियों की बढ़ती संख्या का मूल कारण क्या यह नहीं है कि आज हमने अपने ही देश के उन अमर शहीदों की कुर्बानियों और बलिदानों को भुला दिया है। शहीदों की कुर्बानियों एवं उनके संघर्ष पर लिखे गए साहित्य को नई पीढ़ी के पाठ्यक्रम में यथोचित स्थान नहीं दिया जाता है। नई पीढ़ी को देश के स्वाधीनता संग्राम का सच्चा इतिहास पढ़ने को नहीं मिलता है। क्या हम यह भूल गए हैं कि देशप्रेम और आपसी भाईचारे और एकता के लिए देशभक्ति का संस्कार ज़रूरी है, देश की स्वाधीनता के लिए मर-मिटनेवाले अमर शहीदों और क्रांतिकारियों के बलिदान को भुलाने का ही यह दुष्परिणाम है कि आज के नौजवानों की धमनियों में बहता रक्त अपने देशवासियों की पीड़ा को देखकर भी नहीं खौलता। देश सेवा या देश के प्रति कुछ कर गुज़रने की भावना आज लुप्तप्राय ही होती जा रही है। इन परिस्थितियों में श्रीकृष्ण सरल द्वारा रचित साहित्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है। सरलजी अपने क्रांतिकारी साहित्य के द्वारा राष्ट्र के प्रति संवेदना और प्यार जगाते हैं, युवाओं में नया जोश और उत्साह भरते हैं तथा जीवन की चुनौतियों से रूबरू कराकर उनसे निपटने की हिम्मत देते हैं। उनके द्वारा रचित अमर शहीदों की संघर्ष गाथा और बलिदान की कहानियाँ आज की युवा पीढ़ी की चेतना जागृत करने में सक्षम हैं। उनके द्वारा रचित क्रांतिकारी साहित्य के मार्मिक विवरणों को पढ़कर सहज ही एहसास हो जाता है कि आज हम जिस आज़ादी को भोग रहे हैं, वह किस कीमत और किन बलिदानों से हमें प्राप्त हुई है।
श्रीकृष्ण सरल स्वाधीनता संग्राम सेनानी रहे हैं, वे राष्ट्रकवि हैं, राष्ट्ररत्न हैं, प्रबुद्ध गद्यकार और इतिहासकार हैं, राष्ट्र की आत्मा की आवाज़ हैं, क्रांतिकारियों के सच्चे साधक हैं, देश की आत्मा की आवाज़ हैं, इंकलाब का स्वर हैं, लेकिन इस महान् देशभक्त और तपस्वी साहित्यकार की सृजन-साधना का मूल्यांकन करने में हमारा देश चूक गया। वे विश्व-पटल पर एक महान् विभूति हैं और सारे अलंकरण और सम्मान उनके कृतित्व के सामने बौने से लगते हैं। क्रांतिकारियों और अमर शहीदों के बलिदान को केन्द्र में रखकर लिखा गया उनका संपूर्ण साहित्य यथार्थ की ठोस ज़मीन के आधार पर विरचित है। सरलजी की रचनाओं की मुख्य विशेषताएँ हैं - देशभक्ति व राष्ट्रीयता, नैतिकता, ऐतिहासिक चेतना, मानवीय मूल्यों की स्थापना और जनमानस की अभिव्यक्ति। ये पाँचों तत्व उनकी साहित्य-सृष्टि के पंच-तत्व हैं और कहीं स्वतंत्र रूप में तो कहीं सम्मिलित रूप में प्रकट होकर ये तत्व उनकी रचनाओं को अलंकृत करते हैं। उन्होंने अपने देशभक्तिपूर्ण साहित्य के माध्यम से देश के नौजवानों में जोश, उत्साह और देशभक्ति का भाव फूँकने के जितने व्यक्तिगत प्रयास किए, वे कई संस्थाएँ मिलकर भी नहीं कर सकतीं। वे वास्तव में ‘हिंदी साहित्य के दधीचि’ थे, जो आज भी गुमनामी के अंधेरों में गुम हैं। आज की तारीख में हम भारतीयों का फ़र्ज़ है कि उनके इस महत्त्वपूर्ण योगदान से आम जनता, विशेषकर नई पीढ़ी को रूबरू कराएँ, ताकि उनकी मूक साधना सफल सिद्ध हो सके।
- डॉ. स्वाति कपूर चढ्ढा
एम.ए., पीएच.डी. (नागपुर)
हिंदी अधिकारी, एनसीएल, पुणे
35 से अधिक शोधपत्र/लेख, एक काव्य संग्रह – ‘मेरे एहसास भाव’ प्रकाशित
वैश्विक हिंदी सम्मेलन द्वारा - भारतीय भाषा सेवी महिला सम्मान
email: blog@shrikrishnasaral.com
पूजनीय पिताजी राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल के व्यक्तित्व एवं उनके साहित्यिक-प्रदेय के विषय में उत्सुकता रखने वाले लोगों को यह लेख अवश्य पढ़ना चाहिए। सरलजी डॉ स्वाति कपूर के शोध का विषय रहे है। सरलजी ने जिस धरातल पर लेखन किया है उसका तात्विक विवेचन लेखिका ने यथेष्ठ रीति से किया है
-- डॉ धर्मेन्द्र सरल शर्मा
राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरलजी के लेखन का मर्म अपने इस लेख में डॉ स्वाति कपूर ने बड़ी सुंदरता से प्रस्तुत किया है। उनके शोध का विषय होने के कारण यह प्रामाणिक एवं तथ्यात्मक भी है।👏👏