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श्रीकृष्ण सरल कृत ‘विवेकाञ्जलि’ : भारतीय संस्कृति का वसीयतनामा

अपडेट करने की तारीख: 3 दिन पहले

-डॉ. रामदयाल कोष्टा ‘श्रीकान्त’

 

'सरल-कीर्ति' ब्लॉग शृंखला के इस अंक में प्रस्तुत है

हिन्दी के सरस कवि, सुधी समीक्षक, यशस्वी पत्रकार तथा राम–कथा के मर्मज्ञ व्याख्याकार

प्रोफेसर डॉ. रामदयाल कोष्टा का समीक्षात्मक आलेख

‘शहीदों के गायक श्रीकृष्ण सरल अभिनन्दन–ग्रन्थ’ 8 जून 1984 पृष्ठ क्रमांक 106 से 110 से साभार

शीर्षक : ‘विवेकाञ्जलि’ : भारतीय संस्कृति का वसीयतनामा  | लेखक : डॉ. रामदयाल कोष्टा | सम्पादक : डॉ. शिवशंकर शर्मा

 
 

 

‘ विवेकाञ्जलि ’ : भारतीय संस्कृति का वसीयतनामा


श्री श्रीकृष्ण सरल कुशल कवि, इतिहास के शोधार्थी और भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के कुशल चितेरे हैं। वे जनमानस में राष्ट्रभक्ति की चेतना का जो संचार कर रहे हैं वह इतिहास की वस्तु है।

 

श्री सरलजी ने ऐसे महापुरुषों तथा राष्ट्रभक्तों का व्यक्तित्व चुना है जिनके मार्मिक प्रसंग जनसाधारण के लिए अछूते और अंधकार के काले पृष्ठों के समान रहे हैं। इन पृष्ठों में रोशनी डालकर उन्होंने जनमानस में नव जागरण का शंखनाद किया है। जिस भूमि में श्री सरलजी ने जन्म लिया है, उसके चरणों में अपने साहित्य सुमन को चढ़ाकर उन्होंने सच्चे सपूत होने का परिचय दिया है।

 

'विवेकाञ्जलि' श्री सरलजी के साहित्य जीवन की अन्यतम कृति है, जिसे उन्होंने बड़े मनोयोग से अपनी सिद्ध लेखनी द्वारा सँवारा है। स्वामी विवेकानन्द भारतीय जीवन में एक ऐसी आध्यात्मिक ज्योति लेकर आये जिससे समस्त भारतवासी भारतीय संस्कृति और भारत भूमि की महिमा को समझने में समर्थ हो सके। ऐसे महापुरुष के जीवन को समझ पाना जन साधारण लिये असम्भव है। श्री सरलजी ने स्वामी विवेकानन्द के जीवन, विचार एवं भावना को ‘प्रत्यक्षदर्शी भवेन्नरा’ बनकर समझने का प्रयास किया और ‘विवेकाञ्जलि' के रूप में एक ऐसा महान् काव्य भारतीय साहित्य को सौंपा जिससे हिन्दी–जगत् कभी उऋण न हो सकेगा।

 

‘विवेकाञ्जलि’ काव्य–ग्रन्थ गुरुमहिमा, मातृमहिमा, देशधरा, जन कल्याण, राष्ट्र निर्माण, संस्कृति, नारी शक्ति, जगत, जीवन, तन, मन, अत्मा, परमात्मा, प्रार्थना, प्रेम, भक्ति, ज्ञान, दान, कर्म, धर्म, शिक्षा, सत्य, समाज, श्रम, माया; मृत्यु आदि 32 अध्यायों में विभक्त हैं, जिसमें लौकिक जगत से लेकर आध्यात्मिक जगत के सभी सोपान समाहित होकर जीवन की पूर्णता तथा समग्रता का परिचय देते हैं। साथ ही ऐसे जीवन दर्शन का निर्माण करते हैं जो सर्वग्राही, सर्वकालिक और सर्वकल्याणकारी है।

 

भारतीय जीवन में गुरु का विशेष महत्व है। उसकी कृपा के बिना संशय विहंग उड़ाकर जीवन का ध्येय पूर्ण करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। गुरु ही संसार की विघ्न बाधाओं से दूर करानेवाला शुद्ध प्रकाश है। संसार के प्रपंचों का भेद कर वही दिशा दर्शन देनेवाला महापुरुष है। इसलिए सरलजी ने लिखा है –

 

कहाँ अगम गिरि अहंकार के

कहाँ मोह के वन हैं ?

कहाँ छिपे बटमार लोभ के

कहाँ दंभ के धन हैं ।

तुम सचेत करते हो जन को,

भेद बता भटकन के।

 

गुरु ही दानी हैं, अशरण के शरण हैं, उसके बिना ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है।

 

मनुष्य जीवन में माँ का विशेष महत्व है। उसके बिना तो जीवन सम्भव नहीं। उसका दुलार; त्याग और ममता भरे हाथों का प्यार पाकर ही मनुष्य अपने जीवन का शृंगार कर मनुष्य बनता है। उसका ऋण चुकाना असम्भव है। वृक्षों से उत्पन्न होनेवाले पुष्प भी अपनी माँ के चरणों में चढ़ते हैं। अतः माँ की महिमा का जितना भी यशोगान किया जावे कम है। माँ के इन्हीं गुणों का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है –

 

माँ ममता है, माँ क्षमता है

माँ सेवा, माँ उच्च त्याग है।

माँ जप है, माँ पावन तप है।

माँ काशी है, माँ प्रयाग हैं।


माँ, जैसे साकार साधना,

माँ पुण्योदय युत विहान है।

माँ पूजा, माँ दिव्य अरती,

माँ संजीवन सामगान है।

 

जन्म देनेवाली माँ के साथ भारतभूमि को भी माता का साक्षात् स्वरूप मानकर राष्ट्र कवियों ने अपने शब्द सुमनों से उसकी आरती उतारी है। भारत की पावन मिट्टी को माथे पर लगाकर उसकी रक्षा करने का व्रत सभी भारतवासियों ने लिया है। वीर इसके लिये अपना सर्वस्व अर्पण करने के लिये तत्पर रहते हैं। इसी भावधारा का प्रवाह कवि ने इन शब्दों में किया है –

 

वीर इसके शीश का भी दान करते हैं,

तीर इसके मृत्यु का संधान करते हैं।

मित्र पर स्नेहिल हृदय की छाँह होती है,

शत्रु पर तलवार वाली बाँह होती है।

 

हर कली का तन यहाँ अंगार होता है,

लाल लपटों से यहाँ शृंगार होता है।

शान्ति का सन्देश है इस देश का ताना,

क्रान्ति का उन्मेष है इस देश का बाना।

 

साधना की जय, सबल संघर्ष की जय हो।

प्राण प्यारे देश भारतवर्ष की जय हो।

 

जो जवानी भारतमाता की रक्षा करने में असमर्थ है उसे धिक्कार है। यहाँ की नारी गरिमामयी, पूत हठीले, निराले और रंग रंगीले हैं। त्याग, सेवा ही इनका धर्म है। यह पुण्य और पावन धरा है, भारतवासियों का जीवन धन तथा यही हमारा भूत, भविष्य और वर्तमान है। यह ज्ञान का ध्यान का धाम रहा है। यहाँ दुनिया की संस्कृतियों ने विश्राम पाया है। ऐसे राष्ट्र का निर्माण करने के लिये प्रत्येक व्यक्ति को पुजारी बनकर सामने आना चाहिये यही कवि की आकांक्षा है।

 

राष्ट्रीय भावना से आप्लावित कवि की लेखनी जहाँ भारतमाता की रक्षा एवं उसका निर्माण करने के लिये आह्वान करती है, वहीं नया निर्माण करने के लिये नया संकल्प लेकर सामने आती है। कुरीतियों, अंध–विश्वासों तथा धार्मिक संकीर्णताओं ने इस देश की जड़ें खोखली कर दी हैं। इनके विरुद्ध संघर्ष करने के लिये कवि की लेखनी उबल पड़ती है –

 

जड़ें खोखली करती जातीं

जो कुरीतियाँ अपने घर की,

नहीं रखेंगीं हमें कहीं का

भीख मंगाएँगीं दर–दर की

 

संकल्पी यौवन के उर में

युग निर्माण स्वप्न पलते हैं,

यौवन के अनगढ़ साँचों में

युग के कई रूप ढलते हैं।

 

राष्ट्र का निर्माण करने के लिए समवेत संकल्प और प्रयास आवश्यक हैं। इसके लिये बलिदानों की होड़ लगती है, तब राष्ट्र का मान, गौरव बढ़ता है। तभी तो कवि आक्रोश में अपनी अभिव्यक्ति देते हुए कहता है –

 

केवल भाषण उपदेशों से

हरगिज नहीं राष्ट्र बनते हैं,

बनते राष्ट्र हाथ जब सबके

मिट्टी कीचड़ में सनते हैं।

 

भारतीय संस्कृति की अपनी मान्यताएँ रही हैं। यह सदा अशरण को शरण देनेवाला तथा शान्ति का उपासक रहा है। यहाँ के लोगों में कभी साम्राज्यवादी भावना नहीं रही इसलिये कवि ने अपने गौरवमय उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है –

 

हमने देश नहीं जीते हैं, हमने देशों के दिल जीते

हमने उन्हें पूर्णता दी है दिखे खोखले या जो रीते।

हमने नहीं गोलियाँ दागीं, हमने जग को मन्त्र दिये हैं

जो तोपों की भाषा बोले, हमने वे मुख बन्द किये हैं।

 

 

भारतीय संस्कृति में जो स्थान नारी को प्राप्त है वह दुनिया के किसी भी देश में पाया जाना असम्भव है। नारी शक्ति, सहनशीलता तथा उसकी अपरिमेय कमनीयता का वर्णन किये बिना भारतीय संस्कृति का कोई भी अध्याय अपूर्ण है। इस कारण सरलजी ने नारी शक्ति का गुणगान करते लिखा है –

 

नहीं मात्र कमनीय कली यह

यह ज्वाला है विकराला है,

इसने प्रलय रचाए, इसने

मुर्दों में जीवन डाला है।

 

यह दुर्गा है, यह रणचण्डी

अरि विनाशिनी यह प्रचण्ड है,

भारत की गरिमा महिमा की

ज्योति शिखा युग–युग अखण्ड है।

त्याग तपस्या बलिदानों की

है इसने आरती उतारी।

महाशक्ति भारत की नारी।

 

स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय अध्यात्म का जो सरलीकरण जन मानस के कल्याणार्थ किया, उसे गीतों में बाँधकर अमरत्व प्रदान करने में सरलजी के योगदान को सराहा जाना चाहिये। जीव, जगत, आत्मा, परमात्मा, ज्ञान, भक्ति, कर्म, दान, धर्म, और शिक्षा जैसे गूढ़ विषयों को कविता में बाँधना कवि की कुशल लेखनी का परिणाम है।

 

सम्प्रति, कहा जा सकता है, कि भारतीय संस्कृति, धर्म, समाज, राष्ट्र एवं नारी के संबंध में विवेकानन्द जी ने अपने जो विचार प्रकट किये थे, श्री सरलजी ने अपने विवेक से उन्हें आत्मसात किया और गीतों में बाँधकर उस सनातन परम्परा को शाश्वत एवं चिरन्तन बनाने में अपना सहयोग दिया।

 

श्रीकृष्ण सरल के गीतों में भावों को स्पष्ट रूप में प्रगट करने की क्षमता है। अध्यात्म जैसे गूढ़ विषय को सरल कविता में बाँधकर सामान्य जन का कण्ठ-हार बनाना साधारण कवि का कार्य नहीं अपितु किसी अज्ञात प्रेरक शक्ति का परिणाम है। लगता है, विवेकाञ्जलि का सृजन करने में इस महाकवि ने अपनी समग्र चेतना को समर्पित किया है।

 

 

प्रोफेसर डॉ. रामदयाल कोष्टा ‘श्रीकान्त’

हिन्दी के सरस कवि, सुधी समीक्षक

यशस्वी पत्रकार, राम–कथा के मर्मज्ञ व्याख्याकार

हिन्दी विभागाध्यक्ष, दा.ना.जैन महाविद्यालय,जबलपुर

लेखक ई–परिचयwww.shririshnasaral.com/profile/rdk

ई-मेल : blog@shrikrishnasaral.com

 

विशेष सूचना –

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